कबीर दास (kabir das) जी ज्ञानमार्ग शाखा के बहुत ही प्रसिद्ध कवी माने जाते है | ज्ञान मार्गी शाखा में वो कवी आते है जो इस बात में विश्वास रखते है की ज्ञान के जरिये हे आप इश्वर को या मोक्ष को प्राप्त कर सकते है |
कबीर हिंदी साहित्य के भक्ति काल के एकलौते ऐसे कवि है, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडम्बरों पर कुठारा घात करते रहे |
इनके कहे गए साखी((काव्य प्रकार)) से उस समय के सामाजिक और धार्मिक जीवन की बहुत सारी रूढ़िवादी परंपराओं का जिक्र होता है और वो इसका भरपूर खंडन करते है |
कबीर दास (kabir das), कबीर साहब और संत कबीर नामों से प्रसिद्द थे |
वैसे देखा जाये तो आज कबीर से जूडी घटनाओंका प्रमाण तो नहीं मिलता लेकिन जन श्रुतियों में वो हमेशा मौजूद रहे है और हमारे बोलचाल में भी |

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कबीर दास((kabir das) जी की जन्म कहानी
कबीर दास जी का जन्म 1398 ई. में काशी में हुआ था और मृत्यु वर्ष 1518 में हुई थी | काशी एक प्रसिद्द तीर्थ स्थल है |
कहा जाता है की संत कबीर दासजी का जन्म विधवा ब्रह्मणी के गर्भ से हुआ था | विधवा ब्रह्माणी ने लोक लाज के डर से इन्हें जन्म के बाद उत्तरप्रदेश के वाराणसी जिल्हे में काशी शहर के अन्दर एक लहर तारा तालाब है, उस तालाब के सिडीयों पर इन्हें छोड़ गयी थी |
एक लोक वन्दता यह भी है की संत कबीर दास इस लहरें तालाब के एक कमल पुष्प पर बालक के रूप में अवतरीत हुए थे |
➡ काशी का नीरू नाम का जुलाहा अपनी नई नवेली दुल्हन नीमा का गौना कराकर ससुराल से वापस आ रहा था | मार्ग में तालाब देखकर दोनों कुछ देर तक विश्राम के लिए रुक गये, तभी उन्हें नवजात बालक की किलकारियाँ सुनाई दी |
जब वे आवाज की और गए, तो तो वहां के दृश्य को देखकर आचम्भित हो गए | उन्होंने देखा एक सुकोमल शिशु किलोल कर रहा था | नीमा अपने ह्रदय में उठ रहे स्नेह को रोक न सकी और आगे बढ़कर उसने बालक को उठाकर अपने ह्रदय से लगा लिया |

चारों तरफ कोइ भी नजर नहीं आ रहा था इसिलए उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया | जुलाहा दम्पती ने इस बच्चे का नाम ‘कबीर’ रख दिया | जुलाहा दम्पती मुसलमान धर्मीय थे |
संत कबीर दास जी की पौराणीक जन्म कथा
सवंत 1455 जेष्ठ पूर्णिमा दिन सोमवार के मांगलिक ब्रह्म मुहूर्त की बेला थी | लहर तालाब तट पर स्वामी रामानन्द जी के शिष्य अष्टानंदजी ध्यान में बैठे थे | अचानक उनकी आँखे खुल गई | गगन मंडल से एक दिव्य प्रकाश पुंज तालाब में पूर्ण विकसीत पुष्प कमल पर उतरा |
क्षण मात्र में वह प्रकाश पुंज बालक के रूप में परावर्तीत हो गया | स्वामी अष्टानंदजी इस अलौकीक बात को समझ न सके | इस घटना का अर्थ जानने वे अपने गुरु रामानन्दजी के पास चले गए |
गगन मंडल से उतरे, सद्गुरु सत्य कबीर | जलज माहीं पौढन किये, सब पिरन के पीर ||
लहर तालाब के निकट से गुजरने वाले नीरू और नीमा नाम के जुलाहे दम्पती को कमलपुष्प पे इस बालक के दर्शन हो गए | उन्होंने चारों तरफ देखा बालक के साथ कोइ भी नहीं दिखा | वे सोच में पड गए यह तेजस्वी बालक किसका है | तब बाल स्वरुप सद्गुरु स्वयं बोल उठे :
हम अविगत से चली आये, कोइ भेद भरम ना पाए ; न हम जन्मे गर्भ बसेरा, बालक होय दिखलाये | काशी शहर जलज बीच डेरा, तहाँ जुलाहा पाये ; अगले जनम हम कौल किये थे, तब नीरू घर आये ||

वचन सुनकर दोनों बालक को घर ले गये | इन्हें अपनाकर कर पालन पोषण किया | आगे चलकर के वही छोटा बालक भारतवर्ष में कबीरदास नाम से प्रसिद्ध हुआ |
भले ही कबीर जी का जन्म एक हिन्दू परिवार में हूआ हो परन्तु इनका पालन पोषण एक मुस्लिम परिवार ने किया | तो इस तरह से वे एक हिन्दू भी थे और मुसलमान भी |
कबीर दास (kabir das) से जूडी तमाम बहस अपने जगह मौजूद है | कहीं कहीं इस बात का जिक्र आता है कबीर जी का जन्मस्थान काशी नहीं बल्की बस्ती जिल्हे का मगहर और कहीं आजमगढ़ जिल्हे का बेलहरा गाव है |
परिवार
इनके परिवार के बारे में स्थिती स्पष्ट नहीं है | कोइ नहीं जानता उनका परिवार कहाँ से सम्बन्ध रखता था या उनके असली माता पीता कौन थे ?
कहां जाता है की संत कबीर जी के पत्नी का नाम लोई था |
इनके पुत्र का नाम कमाल तथा पुत्री का नाम कमाली था |
कहते है कबीर पेशे से बूनकर थे और वह उपजीविका के लिए कपडा बुनने का काम करते थे |
कहा जाता है कबीरजी ने लम्बी-लम्बी यात्रायें की: आईने अकबरी किताब के अनुसार कबीर देश भर में खूब घूमे | कुछ दिन वो जग्गनाथ पूरी में भी रहे |
कबीर को दिल्ली के सुलतान सिकंदर लोधी के काल का माना जाता है |
कबीर के गुरु कौन थे ?
काशी में जिस समय कबीर जी के दोहों ने उथल पुथल मचाई थी उस समय वहां स्वामी रामानंद का बड़ा मान था |
स्वामी रामंनद के बारह शिष्य बताये जाते है | जिनमे कबीर दास जी एक थे | कबीर ने एक जगह अपने दोहे में कहा हैं | “काशी में हम प्रकट भये रामानंद चेताये |”
आमतौर पर स्वामी रामंनद जी को ही कबीर का गुरु माना जाता है |
➡ कबीर के गुरु कौन थे इसको लेकर इतिहासकारों में थोडा संदेह है | एक बड़ा तबका है जो स्वामी रामानन्द को कबीर का गुरु मानता है |
कई लोग ऐसा मानते है की कबीर ‘निगुरा’ थे मतलब बिना गुरु के | कबीर जी ने एक दोहे में कहा है “आप ही गुरु आप ही चेला ” मतलब आप स्वयंम अपने आपके शिष्य भी हो और गुरु भी हो |
तो कई लोग ऐसा मानते है की उन्होंने वैष्णव पीताम्बर पीर को अपना गुरु माना था | तो और एक परंपरा के अनुसार शैख़ ताकी को कबीर का गुरु माना गया है |
जाती प्रथा के विरोधी संत कबीर दास (कथा)
कबीर जी धार्मिक भेद-भाव और जातपात के घनघोर विरोधी थे | उनके बारें में एक दंतकथा प्रचलीत है |
➡ दक्षिण भारतीय तोताद्री मठ के निमंत्रण पर रामानन्दजी वहां पहुँच गए | कबीर भी एक भैंसे पर झोली आदी लाद अपने सभी वर्णों (भिन्न जाती और धर्मों के लोग) के संत भक्तो के साथ थे |
तोताद्री मठ में जाती प्रथा थी | मठ के आचार्य चिंता में पड गए की सबको साथ में कैसे बीठाया जाय ? तब निर्णय लिया गया की जो वेद मन्त्रों का सस्वर उच्चारण करेंगे वही संत भक्तो पंडितों के साथ प्रथम पंक्ती में भोजन करने बैठेंगे |
तब कबीर बोले “वेद मन्त्र तो हमारा भैंसा भी पढ लेता है” | उन्होंने भैंसे के पीठ पर जैसे ही हाँथ रखा भैंसा सस्वर अर्थ सहीत वेद मंत्र का उच्चारण करने लगा |

आचार्य पंडीत अपनी जातिवादी, भेद भाव वाली सोच पे लज्जित हो गए, उन्होंने संत कबीर से क्षमा माँग ली और सभी ने एक साथ मिलकर भोजन किया |
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सर्व ज्ञानी कबीर
कबीर दास (kabir das) अनपढ़ थे | वे कभी भी किसी विद्यालय नहीं गए और नाहीं इन्होने कभी किसी गुरुसे कोई शिक्षा ली |
इन्होने अपने आसपास के जीवन से जो कुछ भी सिखा वो साखी(काव्य प्रकार) के रूप में या दोहों के रूप में प्रस्तुत किया जो की उनके शिष्यों द्वारा बाद में लेखांकीत किया गया |
कबीर जी की सारी रचनाएँ कबीर ग्रंथावली में संकलित है | ये क्रांतदर्शी के कवि थे जिनके कविता से गहरी सामाजिक चेतना प्रकट होती है |
यह कीताबी ज्ञान से ज्यादा अनुभव के द्वारा प्राप्त कीये ज्ञान को ज्यादा महत्व देते है | क्यों की कबीर जगह जगह घूमकर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते थे
साखी यह कबीर द्वारा लिखे गये कविताओंका संग्रह है | साखी का अर्थ है प्रत्यक्ष ज्ञान | इन् दोहों में कई बोलियाँ जैसे राजस्थानी, भोजपुरी, पंजाबी , अवधि, फारसी, अरबी आदी का मिश्रण है | उनकी भाष को सधुकड्डी या पंचमेल खिचडी भी कहा जाता है |
साखी शब्द का अर्थ होता है साक्षी अर्थात गवाह |
कबीर दासजी के हर एक दोहे में एक अद्भुत ज्ञान मिलता है |उनके द्वारा जो कुछ भी कहां गया उन कथनों को, उनकी सारी कविताओंको बीजक नाम के ग्रंथ में लिखा गया जिसके तीन हिस्से है | साखी, सबद और रमैनी |
कबीर दास के साहित्य
कबीरदास जी की शिक्षा के बारे में इतिहासकारो का यह मत है कि आपने किसी भी विद्यालय से शिक्षा ग्रहण नहीं की थी और आप अनपढ़ थे| कबीर स्वयं अपने दोहे में कहते है ➡
“मसि कागद छूऔं नहीं, कलम गहौं नहि हाथ |चारों जुग कै महातम कबिरा मुखहिं जनाई बात ||”
आपने अपनी रचनाओं को स्वयं लिपिबद्ध नहीं किया था | आपकी रचनाओं को ‘धर्मदास’ जी ने संग्रहित किया था और इस संग्रहण को ‘बीजक’ कहा जाता है
कबीर के रचनाओंके संकलन में, ‘बीजक’ इनका एक बहुत ही महत्त्व पूर्ण संकलन है |
➡ बीजक के तीन भाग हैं,जोकि अग्रलिखित हैं-
➡ साखी शब्द संस्कृत के शब्द “साक्षी” का रूप है| साखी दोहा छंद में लिखा गया है | साखी एक तरह से कहे तो एक दोहा छंद है | जिनमे तेरह और बारह माँत्राओंके के आधार पर गनणा की जाती है |
➡ सबद में कबीर दास जी के गेय पद संग्रहित किए गए हैं | सबद में पूरी संगीतात्मकता विद्यमान है| इन्हें गाया भी जा सकता है |
➡ रमैनी चौपाई एवं दोहा छंद में रचित है, इसमें संत कबीर के रहस्यवादी एवं दार्शनिक विचारों को प्रकट किया गया है|
कबीर दास की साहित्यिक विशेषताएं
कबीर दास जी ने अपने काव्य में रहस्यवादी भावना का समावेश किया है | उनके काव्य खंड में बहुत तरह के उस समय के सामाजीक और धार्मिक परंपराओंका रहस्य छीपा हमें नजर आता है |
कबीर के काव्य का विषय समाज में चली आ रही बुरी रितियों के प्रती लोगों में जागृती करना एवम धार्मिक और सामाजीक बुराईयोंका खंडन करना था |
इनके जितने भी दोहे और साखियाँ हम पढ़ते है उनमे उस वक्त समाज में पाए जाने वाले आडम्बरो, जातपात और कुरीतियों पर इनके द्वारा कडा प्रहार किया गया है |
कबीर किसी भी तरह के जात-पात और भेद-भाव में विश्वास नहीं रखते थे | उनके अनेक दोहों में हमें इसकी साक्ष मिलती है | जैसे “जाति पाती पूछे नहि कोई, हरिको भजे सो हरि को होई |”
लोकप्रिय संत और कवी
सामान्य जन मानस में संत कबीर दास कवी के रूप में काफी लोकप्रिय थे | इसकी वजह थी उनकी भाषा शैली | उनके भाषा शैलीने उस वक्त सामान्य जन को प्रभावित किया था और आज ईतने सालों के बाद भी उनकी काव्य की भाषा शैली लोगों को प्रभावित कर रही है |
कबीर की काव्य भाषा आसपास के माहोल से मिली जुली भाषा है जिसे सामान्य लोग रोज की बोली भाषा में प्रयोग किया करते थे | साहित्यकार इस भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ कहते है |
सधुक्कड़ी पंचमेल मतलब लगभग पांच भाषाओंका मिश्रण है | इस भाषा में अवधी, राजस्थानी, पंजाबी, पूर्वी हिंदी और ब्रज आदी भाषाओंका मिश्रण है |
इनकी कवितायेँ लोगोंको जीवन जीने की कला सिखाती है | इन्होने अपनी कविताओं द्वारा धार्मिक अवडम्बरों पर और समाज के कुरीतियों पर चोट की है |

धर्मनिरपेक्ष संत
कबीर जी हिन्दू मुसलमान का भेद नही मानते थे |
कबिर को बचपन से ही हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों सम्प्रदायोंके संस्कार विद्यमान थे इसीके कारण वे दोनों धर्मों के लोगों में लोकप्रिय थे, दोनों धर्मों के लोगों के बीच उनका विशेष स्थान था |
कबीर जाती बंधन को तोड़ने की बात आज से ६०० साल पहले करते थे | न हिन्दू ना मुस्लमान की घोषणा करने वाले कबीर भारत वर्ष के पहले कवी थे जिन्होंने धर्म निरपक्ष समाज की मांग अपेक्षा की थी |
वैसे कबीर को इस बात से कोइ फर्क नहीं पड़ता की उनके पालन पोषण करने वाले कौन थे, वो मुसलमान थे या हिन्दू, तुर्क थे या सनातनी ये सवाल कबीर के लिए महत्व नहीं रखता था | पर समाज के क्या चल रहा था और क्या चलता आ रहा था इसको लेकर कबीर किसको छोड़ने वाले नहीं थे |
जब कबीर जी का देहांत हुआ तब हिन्दू कहते थे कबीर साहब हमारे है और मुस्लमान कहते रहे वो हमारे है |
पर जबकी असलीयत यह है की कबीर ने जीवन भर दोनों धर्मो के आडम्बरों पर तीखा प्रहार किया था | और उन्होंने अपने दोहे में इस बात का जिक्र भी क्या था |
हिंदु कहूँ तो मैं नहीं मुसलमान भी नाहि |
पंच तत्व का पूतला गैबी खेले माहि ||
मैं न तो हिन्दु हू अथवा नहीं मुसलमान। इस पाच तत्व के शरीर में बसने वाली आत्मा न तो हिन्दु है और न हीं मुसलमान |
कबीर दास की मृत्यु
कबीर जी को १२० वर्षोंकी लम्बी आयु प्राप्त हुयी | उनकी मृत्यु 1518 इसवी में महनगर हुई |
ऐसा माना जाता है कि जीवन के अंतिम समय में आप काशी से मगहर चले गए थे, क्योंकि उस समय लोगों में यह धारणा प्रचलित की जिस व्यक्ती की मृत्यु काशी में होती है उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और जिसकी मृत्यु मगहर में होती है उसे नरक की प्राप्ति होती है|
कबीरजी का कहना था अगर आपके कर्म अच्छे हो तो आपकी मृत्यु भले ही मगहर में हो आप को स्वर्ग प्राप्ती जरूर होगी | अगर आपके कर्म बूरे हैं और आप काशी जैसे पवित्र क्षेत्र में मरते हैं तो भी आपको नरक में ही जाना होगा |
एक मत (वन्दता) यह भी है की काशी के काजी, कोतवाल, पंडित उनसे नाराज थे इसलिए वह उनको परेशान किया करते थे | इसीसे त्रस्त होकर उन्होंने अपने अंतिम समय में काशी छोड़ने का फैसला किया और मगहर चले गए |
जिस प्रकार कबीर के जन्म के संबंध में अनेक मत हैं उसी प्रकार उनके मृत्यु के संबंध में भी अनेक मत प्रचलित हैं, अनंतदास जी के अनुसार आपकी मृत्यु सन 1518 ईस्वी में हुई थी और आपका जीवन काल 120 वर्षों का था|
संत कबीर की मजार और समाधी
उत्तरप्रदेश के संत कबीर नगर का ‘मगहर’ एक क़स्बा है जहा कबीर की मजार भी है और समाधी स्थल भी है |
यहाँ हर साल माघ शुक्ल दशमी से माघ पूर्णिमा तक मेला एवम संत समागम समारोह आयोजीत किया जाता है |इसमें देश विदेशसे लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहाँ आते है |
कबीर के माता पीता नीरूऔर नीमा की समाधी उत्तरप्रदेश के ‘वाराणसी’ में है |
कबीर जयंती
आज 600 साल बाद भी कबीर की विरासत जीवित है और कबीर पंथ (“कबीर का पथ”) के माध्यम से जारी है, एक धार्मिक समुदाय जो उसे अपने संस्थापक के रूप में पहचानता है और संत मत पंथों में से एक है। इसके सदस्यों को ‘कबीर पंथी’ के नाम से जाना जाता है |
ऐसा माना जाता है कि महान कवि संत कबीर दास का जन्म ज्येष्ठ के महीने में पूर्णिमा के दिन में हुआ था |इसीलिए संत कबीर दास जयंती या जन्मदिन हर साल पूर्णिमा में उनके अनुयायि और प्रेमि बड़े उत्साह के साथ मनाते है |